Monday, May 2, 2011

बह रहा था एक दरिया ख्वाब में

बह रहा था एक दरिया ख्वाब में
फिर भी प्यासा रह गया मैं ख्वाब में

जी रहा हूँ और दुनिया में मगर
देखता हूँ और दुनिया ख्वाब में

रोज़ आता है मेरा ग़म बाँटने
आसमां से इक सितारा ख्वाब में

इस ज़मीं पर तो नज़र आता नहीं
बस गया है जो सरापा ख्वाब में

मुद्दतों से मैं उस का मुंतज़िर
कोई वादा कर गया था ख्वाब में

क्या यकीं आ जायेगा उस शख्स को
उस के बारे में जो देखा ख्वाब में

एक बस्ती है जहाँ खुश हैं सभी
देख लेता हूँ मैं क्या क्या ख्वाब में

अस्ल दुनिया में तमाशे कम हैं क्या
क्यूँ नज़र आये तमाशा ख्वाब में

खोल कर आँखें परेशां हूँ बहुत
खो गया जो कुछ मिला था ख्वाब में

क्या हुआ है मुझको 'आलम' इन दिनों
मैं ग़ज़ल कहता नहीं था ख्वाब में

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया ग़ज़ल...
    यह शेर सबसे सार्थक लगा...
    "अस्ल दुनिया में तमाशे कम हैं क्या
    क्यूँ नज़र आये तमाशा ख्वाब में"....

    .. काफी दिनों बाद आपकी रचना पढ़ी... शुभकामना

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  2. Khursheed sahab namaskar,
    Yadi mujhe thik yad aa raha hai to aapko Hans me padha hai.Ghazal bahut kamyab hai.Badhai.

    Saurabh.

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